Skip to main content

महात्मा : लुप्त होते आदर्श

समय की पराकाष्ठा से नाखुश हूँ,
दुःख कामुक समाज से नाखुश हूँ,
हे सुप्त सर्वशक्तिमान,
मैं इन निरंतर खींचती सीमाओं से अत्यंत नाखुश हूँ,

एक ख्वाब देखा था,
एक दृष्टि संजोयी थी,
उस दिव्य महात्मा ने
नए भारत का सपना संजोया था,
बेरिस्टर बन भी खादी को अपनाया,
उस निर्मम रानी को अहिंसा का पाठ पढ़ाया,
कस्बो को उसने राष्ट्र बनाया,
तब गाँधी महात्मा कहलाया,

किन्तु जाने क्यूँ आज महात्मा गौण है,
दिखता है तो सिर्फ एक सन्नाटा,
बस कुछ इतिहास के पन्ने, और भूली-बिसरी यादें,
क्यूँ अचानक गाँधी देश की पहचान से सिर्फ एक गरीब इन्सान बन गया?
क्या फिर से देश गुलाम हो गया है?
हाँ, शायद यही सच है,
शायद यही विकास की परिभाषा है,
और यदि है तो क्या यह विकास है?
मेरी माने तो महज एक छलावा-मात्र है,
देखे तो ज़रूर स्वर्णमयी प्रतीत होते है,
परन्तु परखे तो कोडियो से बढ़कर नहीं है,

बहता लहू, बिलखती माए, बहते आंसू, बिखरी लाशें,
श्राप बनती गरीबी, टूटते हुए ये मिटटी के मकान,
विकासशील देश के वादे, और ये अनैतिक इरादे,
ये सब हास्यास्पद नहीं तो और क्या है?
एक टूटती नौका है, और दूर कही तमाशबीन माझी है,
है तो बस वही सवाल, क्या ऐसा विकास जायज़ है?

सत्य पर असत्य की जय है,
असत्य राजा और सत्य पापी है,
क्या यही आज़ादी है?
'सत्यमेव जयते' के सूत्रधार के देश में ही ये कैसी लाचारी है?
और यदि ऐसा है तो क्यूँ महात्मा का मुखौटा लिए बैठे हो?
क्यूँ नहीं कह देते की वो दुर्बल अज्ञानी था?
या तुम चार अक्षर पढके परम-ज्ञानी हो गए?

अपने भटके उद्देश्यों में है अपने कर्त्तव्य भी भूले बैठे सब,
पिता बोला पर उसकी अकांक्षाओ की कद्र ही न कर पाए,
अपने ही घर को करने चले है गैर्ज़दा,
घर ही में व्याप्त जानलेवा ये फैलती बीमारी,
न रहा सादा जीवन, खो गए वो उच्च विचार,
घोर कलयुग का अन्धकार और ये अनजाना अहंकार,
विलुप्त है सभी वैष्णव जन, हिन्दुस्तानी गैर है,
जाने क्यों आज तुझे तुझसे ही बैर है.

इन पापियों ने, हे महात्मा,तेरे नाम को भी न बक्शा,
बस धुनी रमाते ये अमानुष नाम की महानता कही भूल गए,
मेरी तो समझ से परे है यह अवमानना, यह ढोंग, यह दूषण,
अहिंसा को कायरता का पर्याय बनाये जो क्या वो भारतीय है?

भारत को फिर से उस मोहनदास की ज़रुरत है,
अब फिर से काले शासन को भागना है,
फिर एक बार असहयोग की आवश्यकता है,
चाहे अपने ही देशवासियों के खिलाफ, पर फिर से गाँधी को आना है,
फिर से उस ज्वाला को जगाना है,
फिर आन्दोलन उठाना है,

अंततः बापू तुम्हारी ही चाँद पंक्तिया याद करना चाहता हूँ,
चाहे खोयी हो, पर ये ही आज भी जीवन की अटल सत्य है,
यही आज भी भारत की पहचान है,

"वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड़ परायी जाने रे,
पर दुखके उपकार करे तोये, मन अभिमान न आने रे,

सकल लोक मान सहुने वन्दे, निंदा न करे केनी रे,
वाच-काच्च-मन निश्चल राखे, धन धन जननी तेरी रे,

मोह-माया व्यापे नहीं जेने, दृढ वैराग्य जेना मनमा रे,
राम-नाम शु ताले लगी, सकल तीरथ तेना तन्मा रे,

वना लोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे,
भने नरसैय्यो तेनु दर्शन करता, कुल एकोतेर तरया रे."


" सत्यमेव जयते "

- डॉ. अंकित राजवंशी  

Comments

  1. Aptly described. Bapu is forgotten and that's sad 😔

    ReplyDelete

Post a Comment

Thanks for dropping by... Do leave a comment in the Comments section below...

Popular posts from this blog

एक नयी सुबह....

आज फिर दिल में जगी एक उम्मीद है, की होगा फिर सवेरा, बसेगा मेरा आशियाना... खोया रहा हूँ बरसो से जीने की जिस कशमकश में, आज वही रात रौशनी दिखाने लगी है... जाने क्या आग थी जो जले जा रही थी, मुझे तो चिंगारी भी डराती रही है... तज़ब्जुब थे जो ये रेंगते सन्नाटे, आज वही बदलते प्रतीत हो रहे है... वक़्त की ये अँगडाई, बदलते मौसम, बारिश के छींटे, उगता सूरज, जाने क्यों सब सुहाने लगा है, शायद सच ही कहते है, बस नज़र के धोखे ही तो है... वर्ना,  ना ही कोई रंग है, ना कोई रूप, ना सौंदर्य, ना ही कोई कुरूप... आंखे बदल के देखो,  कितने हसीन है ये आँगन, मैंने भी आज ही जाना है इन्हें, ख़ुशी बाँटना ही इनका जीवन है, अचल, अटल, निष्पाप, निस्वार्थ... सिखा है आज इनसे मैंने, जीवन का सत्यार्थ, सेवा का चरितार्थ, की ख़ुशी जीवन में नहीं है, अपितु जीवन ही ख़ुशी में है... अनायास सोचने लगा की क्या मेरे जीवन में दुःख है? और फिर ज़ाले बुनती उस मकड़ी को देखकर खुद ही शर्मसार होने लगा,  तब जाना की ये दुःख नहीं छलावा मात्र है, अनजाने ही जिजीविषा की

ऐ ज़िन्दगी .....

ऐ ज़िन्दगी इतना बता, तू इतनी खफा क्यूँ है ।। जीते  रहने की मुझे, दे रही यूँ सजा क्यों हैं ।। दर्द को तबस्सुम में समेटे , जाने क्या सफ़रनामा लिख रहा हूँ ।। अक्स में मसर्रत खोजता, इक जनाज़ा लिए चल रहा हूँ ।। ख्वाहिशो का मुक़म्मल होना, अर्श में अफसून सा लगता है ।। मेरे अश्क़ो की ना परवाह तुझे, इतनी अय्यारी से आशियाना राख कर रही क्यों है .. ऐ ज़िन्दगी इतना बता, तू इतनी खफा क्यूँ है ।। जीते  रहने की मुझे, दे रही यूँ सजा क्यों हैं ।। - डॉ. अंकित राजवंशी 

The Midnight Fallacy

Amazing is the mystique of this night, the calm, silent, angelic wind, the whispering plants, these clouds floating over the horizon, the shining stars, everything is just so magical.. another full-moon night sitting up here, and d same fallacy, d wicked wind brushing my ears, I can hear it play with me.. I can feel those lil baby clouds, trying to catch the horizon.. the shiniest star showing them the way, the eldest are the leaf-ladies, they whisper and chat at night, after a long day at work.. I love their world, so selfless, so honest, as if its a magnet for me, cant stop listening, i come over again, everyday they call me to the huddle, and i sit there and listen, feeling their warmth, their love, oh! that mesmerising feeling.. Time passes by so quickly with them, that I see the horizon turning orange, With a purple tinge in the sky,  the creatures of day start coming to life, birds start their morning rituals before anybody else, the wind slow