समय की पराकाष्ठा से नाखुश हूँ, दुःख कामुक समाज से नाखुश हूँ, हे सुप्त सर्वशक्तिमान, मैं इन निरंतर खींचती सीमाओं से अत्यंत नाखुश हूँ, एक ख्वाब देखा था, एक दृष्टि संजोयी थी, उस दिव्य महात्मा ने नए भारत का सपना संजोया था, बेरिस्टर बन भी खादी को अपनाया, उस निर्मम रानी को अहिंसा का पाठ पढ़ाया, कस्बो को उसने राष्ट्र बनाया, तब गाँधी महात्मा कहलाया, किन्तु जाने क्यूँ आज महात्मा गौण है, दिखता है तो सिर्फ एक सन्नाटा, बस कुछ इतिहास के पन्ने, और भूली-बिसरी यादें, क्यूँ अचानक गाँधी देश की पहचान से सिर्फ एक गरीब इन्सान बन गया? क्या फिर से देश गुलाम हो गया है? हाँ, शायद यही सच है, शायद यही विकास की परिभाषा है, और यदि है तो क्या यह विकास है? मेरी माने तो महज एक छलावा-मात्र है, देखे तो ज़रूर स्वर्णमयी प्रतीत होते है, परन्तु परखे तो कोडियो से बढ़कर नहीं है, बहता लहू, बिलखती माए, बहते आंसू, बिखरी लाशें, श्राप बनती गरीबी, टूटते हुए ये मिटटी के मकान, विकासशील देश के वादे, और ये अनैतिक इराद...